सोमवार, 6 फ़रवरी 2023

ताज

ताज तेरे लिए इक मजहर-ए-उल्फत ही सही
तुझको इस वादी-ए-रंगी से अक़ीदत ही सही
मेरे महबूब कही और मिलाकर मुझसे।

बज़्म-ए-शाही में ग़रीबो का गुजर क्या मानी
सब्त जिस राह में हो सतवत-ए-शाही के निशाँ
उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मानी 

मेरी महबूब ! पस-ए-पर्दा-ए-तशहीर-ए-वफ़ा

तूने सतवत के निशानों को देखा होता
मुर्दा शाहों के मक़ाबिर से बहलने वाली
अपने तारीक़ मकानों को तो देखा होता।।

साहिर लुधियानवी

गुरुवार, 12 जनवरी 2023

बद्रीनाथ और केदारनाथ वास्तव में एक बौद्ध मठ और विहार हैं

शंकराचार्य ने जो काम नेपाल में किया, वही काम कुमायूं और गढ़वाल में भी किया। उन्होंने बौद्धों को बाहर निकाल दिया और ब्राह्मण धर्म को पुनर्स्थापित किया।

डैनियल राईट ने अपनी किताब  "हिस्ट्री ऑफ़ नेपाल"  तथा रिज डेव्हिड्स ने अपनी किताब "बुद्धिस्ट इंडिया" में स्पष्ट तौर पर बताया है कि, केदारनाथ और बद्रीनाथ बौद्ध स्थल है। आदि शंकराचार्य ने सन 820 ईसवी के आसपास केदारनाथ और बद्रीनाथ में स्थित बुद्ध-मूर्तियों को उठाकर नजदीक के जलाशय (नारद कुंड) में फेंक दिया था। केदारनाथ तथा बद्रीनाथ बौद्ध विहारों को शैव मंदिरों में परिवर्तित कर दिया था|  इतना ही नहीं, बल्कि शंकराचार्य ने महाराष्ट्र से जोशी ब्राह्मणों को वहाँ पर बसाया था।

राहुल सांकृत्यायन ने अपनी "मेरी जीवन यात्रा" और  कई अन्य पुस्तकों के केदारनाथ और बद्रीनाथ को बुद्धिस्ट विहार बताया है। 

"मेरी जीवन यात्रा" के भाग 4 में पृष्ठ 40 में राहुल लिखते हैं--"19 मई को निर्वाण दर्शन करना था। सवेरे करीब 7 बजे मैं मंदिर के करीब पहुँच गया। गर्भगृह में नंबूदरी रावल और उनके सहायक डिमरी पुजारी को छोड़ और कोई नही जा सकता, न कोई मूर्ति को हाथ लगा सकता । ......स्नान  कराने के लिए मूर्ति नंगी कर दी गई थी। इसी को निर्वाण दर्शन कहते हैं। मूर्ति काले पत्थर की थी। आंख नाक मुँह लिए एक बड़ा पत्थर का खंड मालूम होता है , किसी ने तराशकर निकाल दिया है। लेकिन इसे तराशा नही कहना चाहिए, शायद हथौड़े से जान-बूझकर तोड़ा गया है या पत्थरो में फेकते यह हिस्सा निकल गया। ..  पद्मासनस्थ मूर्ति के इस हाथ की हथेली पैरो पर थी। मूर्ति पदमानस्थ भूमि स्पर्श मुद्रायुक्त बुद्ध की है, इसमें मुझे कोई संदेह नही। मैंने सारनाथ और अन्य जगह इस तरह की मूर्तियां देखी हैं।  नीचे अलकनंदा के साथ सटे हुए नारद-कुंड में और भी मूर्तियां हैं।

मंगलवार, 27 दिसंबर 2022

Democritus और plato

ये जो हँसोड़ तस्वीर दिख रही है यह किसी मशखरे की नही, एक दार्शनिक Democritus की है जिसने आज से कोई 2400 साल पहले एटॉमिक थ्योरी दिया था।

Democritus ग्रीस का एक नगर अब्देरा का रहवासी था और अपनी बात मजाकिया अन्दाज में कहने का हामी था। अपनी गंभीर से गंभीर बात भी यह मजाकिया अंदाज में कह दिया करता था। दरअसल ग्रीस का अब्देरा नगर इसी तरह के लोगो का शहर माना जाता रहा। 
प्राचीन दुनिया और यूनान में यह माना जाता था कि दुनिया चार तत्वों से मिलकर बना है और यह चार तत्व हैं-- आग,पानी, हवा और मिट्टी । 

लेकिन इस हँसोड़ दार्शनिक ने यह मानने से इनकार कर दिया और एक अपनी नई थ्योरी दी।  
उसने बताया कि यदि सेब या किसी अन्य वस्तु को  बेहद छोटे टुकड़े में भी कर दिया जाय तबभी उसका मूल गुण जस का तस रहेगा। यानी कि किसी भी वस्तु या तत्व को बेहद छोटे सूक्ष्म टुकड़े में तोड़ा जा सकता है और यह अंतिम टुकड़ा भी अपने मूल तत्व से अलग नही होगा। उसमे वे सभी गुण होंगे।   उसने इस बेहद सूक्ष्म टुकड़े को a-tomos( अ-टिमोस) कहा। A मतलब "नही" और Tomos का मतलब "जिसे तोड़ा नही जा सकता।"

लेकिन तत्कालीन दार्शनिक प्लेटो ने इसका जबरदस्त विरोध किया और ग्रीस के बौद्धिक समाज मे Democritus को गलत साबित करने पर मजबूर कर दिया। प्लेटो और उसके पहले से प्रचलित सिद्धांत यानी यह "दुनिया मूलतः चार तत्व से बनी है" को ही मान्य सिद्धान्त माना जाता रहा।  आने वाले 2200 सालो तक democritus को किसी ने याद तक नही किया।
लेकिन 1808 में अचानक democritus का सिद्धांत वैज्ञानिक दुनिया मे चर्चा का विषय बन गया। 1766 में एक पशुपालक के घर एक बालक पैदा हुआ जिसका नाम था- John Dalton, 
1808 में जॉन ने पाया कि all matter is made of ATOM और यह एटम अविभाज्य और अविनासी है और दिए गए तत्व के सभी परमाणु द्रव्यमान और गुणों में समान होते हैं।

 प्लेटो ने अपने समकालीन विद्वान दार्शनिक मित्र Democritus को  कभी गंभीरता से नही लिया और उसको गलत साबित करने के लिए जनमानस-धर्म और सत्ता का भरपूर प्रयोग करके उसे गलत साबित तो कर दिया लेकिन 2200 साल प्लेटो अंततः गलत साबित हुए।

एक शे'र याद आ रहा है--

समझे थे हम जो दोस्त तुझे ऐ मियां ग़लत
तेरा नही है जुर्म हमारा गुमाँ ग़लत।

सोवियत में बुद्ध

प्रसिद्ध सोवियत लेखक G.Bongard और A. Vigasin ने अपनी क़िताब The image of india, A study of Ancient Civilizations in the USSR में लिखते हैं--१२ वीं सदी में रूस में  'बर्लाम और जोआसफ़ की कथा'  बहुत लोकप्रिय थी। सुविदित है कि यह कहानी बुद्ध की जीवनी का रूपांतरण है और जोआसफ़ नाम भारतीय शब्द बोधिसत्व से (बुदास्फ रूप के माध्यम से) बना है। ईसवी संवत के आरम्भ में बोधिसत्व की कथा मध्य एशिया में काफी लोकप्रिय थी।

वे आगे लिखते हैं, "  ससानिद वंश के विख्यात राजा नौशेरवां ने बोधिसत्व की कथा को पहलवी भाषा मे अनुवाद कराया था।

कालांतर में पहलवी भाषा मे लिखा गया बर्लाम और जोआसफ़ कि कथा का रूपांतरण कहीं खो गया परंतु इसका अरबी रूपांतरण उपलब्ध है, जो 8 वीं सदी में हुआ था। कालांतर में रूस में जोआसफ़ के बारे में एक सर्वाधिक लोकप्रिय भजन रचा गया। जिसमें बताया गया कि कैसे भारतीय राजा "अवेनीर" के पुत्र ने अंधा, कोढ़ी दंतहीन बूढ़ा देखा और लोगो का दुःख देखकर रोने लगा और स्वयं भिक्षुक बन गया।

1681 में छपे इस कथा के संस्करण के लिए 17वीं सदी के विलक्षण रूसी चित्रकार सिमोन उशाकोव ने उत्कीर्णन चित्र बनाए थे। रूस के शाही थिएटर में सबसे पहले जो कथा मंचित की गई वह जोआसफ़ यानी बोधिसत्व की कथा ही थी।

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2022

कपिलवस्तु

बात तीस साल पहले की है। 1988 में बस्ती जिले के उत्तरी भाग को अलग कर उत्तर प्रदेश में सिद्धार्थ नगर जिले की स्थापना हुई थी। इसका कारण यह था कि पुरातत्व विभाग ने वास्तविक कपिलवस्तु की पुरातात्विक पहचान कर ली थी और कपिलवस्तु गोतम बुध उर्फ सिद्धार्थ की नगरी थी। इसलिए जिले का सिद्धार्थ नगर नाम इतिहास के प्रामाणिक तथ्यों पर आधारित है।

आज सिद्धार्थ नगर जिले में जो पिपरहवा है, वही सिद्धार्थ की नगरी कपिलवस्तु है। पिपरहवा की पहली जानकारी एक ब्रिटिश इंजीनियर तथा पिपरहवा क्षेत्र के जमींदार डब्ल्यू. सी. पेपे को मिली थी और वो जमीन पेपे के पास थी।

वो जनवरी का महीना था और 1898 का साल था, जब पिपरहवा में विशाल स्तूप की खोज हुई थी। स्तूप से एक पत्थर का कलश मिला। कलश पर ब्राह्मी में अभिलेख था, जिस पर लिखा था - सलिल निधने बुधस भगवते अर्थात अस्थि - पात्र भगवत बुध का है। 19 जनवरी, 1898 को डब्ल्यू. सी. पेपे ने नोट बनाकर इस अभिलेख को समझने के लिए वी. ए. स्मिथ को भेजा था। पहली तस्वीर पिपरहवा के विशाल स्तूप की है और दूसरी तस्वीर में वो अभिलेखित कलश है।

दिन, महीने, साल बीते। बात 1970 के दशक की है। पुरातत्व विभाग ने पिपरहवा की क्रमबद्ध खुदाई कराई। फिर तो विशाल स्तूप के अगल - बगल चारों ओर पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण में अनेक संघाराम मिले। पूर्वी संघाराम, पश्चिमी संघाराम, उत्तरी संघाराम, दक्षिणी संघाराम इसे तस्वीरों में आप देख सकते हैं। पूरा पिपरहवा संघारामों से पटा हुआ था। यह कपिलवस्तु का धार्मिक - शैक्षणिक क्षेत्र था।

यह कपिलवस्तु है और वास्तविक कपिलवस्तु है। इसका पुरातात्विक प्रमाण भी मिल गया। खुदाई में मिली मिट्टी की मुहरों पर लिखा है कि कपिलवस्तु का विहार यही है। आप उन मिट्टी की मुहरों को तस्वीर में देख सकते हैं। कहीं कपिलवस्तु और कहीं महा कपिलवस्तु लिखा है।

आप देख रहे हैं कि पिपरहवा का क्षेत्र विहारों, स्तूपों से भरा है तो फिर कपिलवस्तु के लोग कहाँ रहते थे? बस पिपरहवा से कोई 1 कि. मी. की दूरी पर गनवरिया है। यह कपिलवस्तु का रिहायशी क्षेत्र था। यहीं गणराज्य के लोग रहते थे। आखिरी तस्वीर उसी गनवरिया की आवासीय संरचना की है।

पिपरहवा जो कपिलवस्तु का धार्मिक क्षेत्र था, बोधिवृक्ष पीपल नाम को सार्थक करता है और गनवरिया जो कपिलवस्तु का रिहायशी क्षेत्र था, गण नाम को सार्थक करता है। यह पूरबी बोली के नाम हैं, जिसमें " ल " का उच्चारण " र " और " ण " का उच्चारण " न " होता है। इसीलिए पीपल / पीपर से पिपरहवा/ पिपरिया संबंधित है और ( शाक्य ) गण / गन से गनवरिया संबंधित है। .. RP Singh

बुधवार, 1 दिसंबर 2021

हिंदुओ में क्या बाल विवाह मध्यकाल में आरंभ हुआ ????

 हिंदुओं में लड़कियों के बाल विवाह का आरंभ क्या मध्यकाल में हुआ?

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हमें यही बताया जाता रहा है कि हिंदुओं में लड़कियों का बाल-विवाह मुसलमान आक्रांताओं के भय से मध्यकाल में आरंभ हुआ। यह मान्यता घृणा के कारण गढ़े गए अनेक ‘मिथकों’ में से एक है; क्योंकि हमारे शास्त्र दूसरी ही बात कहते हैं।

विवाह के मुख्य रूप से तीन उद्देश्य बताए गए हैं: घरेलू बलि अनुष्ठान कर्मों के माध्यम से धर्म का उन्नयन; संतानोत्पत्ति से वंशवृद्धि एवं मृत्योपरांत पूर्वजों के सुखमय जीवन की सुनिश्चितता; और रतिसुख। 

आदि काल में सामान्य रूप से स्त्रियों की शादी वयस्क होने के बाद हुआ करती थी। आरंभिक वैदिक काल में शादी के बाद भी वे स्वतंत्र थीं। ऋग्वेद में यदि पति जुआरी और नशेड़ी हो तो पत्नी को उसे छोड़कर किसी दूसरे पुरुष के पास चले जाने का उदाहरण मिलता है। इसके अलावा इसमें पति के मरने के बाद पत्नी के सामान्य जीवन बिताने की आजादी का भी उल्लेख है।

बाद में परिस्थियाँ बदल जाती हैं। स्मृतियों में वर की न्यूनतम आयु 20 और वधू की वय:संधि (10-14) से तुरत पहले की आयु बताई गई है। कट्टरपंथी वर्ग का संतानप्रेम कितना बढ़ गया था, उसे बौधायन सूत्र (संकलन काल – 800-600 ईसा पूर्व) में निहित इस घोषणा से समझा जा सकता है- जो पिता अपनी बच्ची का विवाह रज:स्राव से पहले नहीं करेगा, वह भ्रूण-हत्या (हत्या से भी बड़े अपराध) का भागी होगा और जब तक उसका विवाह नहीं कर दिया जाता, हर रज:स्राव के बाद उसके इस अपराध की संख्या बढ़ती जाएगी। 

यह आम धारणा थी कि विवाह के समय वधू की उम्र वर की उम्र से एक तिहाई हो तो वह आदर्श विवाह है; अर्थात 24 साल के वर को आठ साल की ‘स्त्री’ से विवाह करना चाहिए। (मनुस्मृति, अध्याय-8, श्लोक-93)। इसी अध्याय के एक श्लोक (89) में यह भी है कि ऋतुमती होने के तीन वर्षों तक पिता द्वारा उसके लिए वर निश्चित करने की प्रतीक्षा करे; किंतु इस अवधि में पिता के सफल न होने पर लड़की स्वयं अपने लिए योग्य व्यक्ति से विवाह कर ले।

वाल्मीकि रामायण में विवाह के समय सीता की आयु को लेकर चार बार में दो किस्म की बातें कही गई हैं। पहली बार बालकांड में जनक विश्वामित्र से कहते हैं, ‘भूतल से प्रकट हुई वह कन्या क्रमश: बढ़कर सयानी हुई’ (भूतलादुत्थितां सा तु व्यवर्धत ममात्मजा)। अपनी इस अयोनिजा कन्या के विषय में मैंने यह दृढ़ निश्चय किया कि जो अपने पराक्रम से इस धनुष को चढ़ा देगा, उसी के साथ मैं इसका व्याह करूँगा। ….दिनों-दिन बढ़ने वाली पुत्री को कई राजाओं ने आकर माँगा। परंतु …वे लोग शिवजी का धनुष हिलाने में समर्थ नहीं हो सके। … यही कारण है कि मैंने आज तक किसी को अपनी कन्या नहीं दी।’(सर्ग- 66)। 

स्पष्ट है कि सीता के सयानी होने के (एक-दो साल) बाद ही धनुष तोड़ने पर राम से विवाह हुआ होगा। 

दूसरी बार, अयोध्याकांड के अंतिम दो सर्गों में अत्रि के आश्रम में सीता-अनसूया संवाद में सीता का कथन है, ‘जब पिता ने देखा कि मेरी अवस्था विवाह के योग्य हो गई, तब वे बड़ी चिंता में पड़ गए’ (पतिसंयोगसुलभं वयो दृष्ट्वा तु मे पिता)। 

तीसरी बार ब्राह्मण अतिथि बनकर आए रावण के पूछने पर सीता अपना परिचय देते हुए कहती हैं, ‘विवाह के बाद बारह वर्षों तक इक्ष्वाकुवंशी (महाराज दशरथ) के महल में पति के साथ सभी मानवोचित भोग भोगे हैं।….. (राम के अभिषेक के समय) मेरे महातेजस्वी पति की अवस्था पचीस साल से ऊपर थी और मेरे जन्मकाल से लेकर वनगमन-काल तक मेरी अवस्था वर्षगणना के अनुसार अठारह साल की हो गई थी (अष्टादश हि वर्षाणि मम जन्मनि गण्यते)। (अरण्यकांड, सर्ग 47, श्लोक 9-10)। 

इस कथन के अनुसार विवाह के समय सीता की अवस्था छह साल की थी।

चौथी बार का प्रसंग युद्धकांड का है जब राम सीता के चरित्र पर लांछन लगाते हुए उन्हें अस्वीकार कर के अन्यत्र चले जाने को कहते हैं। राम के आरोप भरे कड़वे कथन के उत्तर में सीता कहती हैं कि ‘बाल्यावस्था में आपने मेरा पाणिग्रहण किया है, इसकी ओर भी ध्यान नहीं दिया। आपके प्रति मेरे हृदय में जो भक्ति है और मुझमें जो शील है, वह सब आपने एक साथ भुला दिया (न प्रमाणीकृत: पाणिर्बाल्ये मम निपीडित:। मम भक्तिश्च शीलं च सर्वं ते पृष्ठत: कृतम्॥) यदि युद्धकांड में दुखी सीता की राम के सम्मुख कही गई बात को सत्य मानें तो उनका विवाह बाल्यकाल में हो गया था।

बाल-विवाह में वृद्धि के लिए कोई ठोस कारण नहीं मिलते। कुछ लोगों का मानना है कि मुसलमानों के डर से माता-पिता अपनी पुत्रियों का विवाह बचपन में कर दिया करते थे और अपनी पत्नियों को घर में बंद कर दिया करते थे। किंतु ऊपर के दृष्टांतों से स्पष्ट है कि ये दोनों प्रथाएँ पहले से मौजूद थीं। अत: इसे कारण मानना उचित नहीं जान पड़ता। 

‘धार्मिक आग्रह (संतानोत्पत्ति की जरूरत) हमेशा से रहा है। शास्त्रों के अनुसार कामुकता ने भी अपनी भूमिका निभाई हो सकती है। स्त्री को प्राकृतिक रूप से कामुक माना जाता था। एक अविवाहित लड़की युवारंभ होने के साथ ही अपना प्रेमी ढूंढ़ने लगेगी, यह डर माता-पिता को लगा रहता था। हालाँकि माता-पिता उसकी कठोरतापूर्व रखवाली करते थे, किंतु अगर एक बार कौमार्य भंग हो जाय तो उसका विवाह होना असंभव होगा और माता-पिता को उसका भरण-पोषण का भार वहन करना पड़ेगा तथा अपमान झेलना होगा, यह डर लगा रहता था। माता-पिता के लिए लड़की उनके लिए भार समान थी।’ (ए एल बाशम, The Wonder, that was India, पेज-168)। 

अनसूया से सीता ने आगे जो कहा था, उसे इसके प्रमाण में उद्धृत किया जा सकता है कि लड़की भार के समान थी, ‘जब पिता ने देखा कि मेरी अवस्था विवाह के योग्य हो गई, तब इसके लिए वे चिंता में पड़ गए। जैसे कमाए हुए धन का नाश हो जाने से निर्धन मनुष्य को बड़ा दुख होता है, उसी प्रकार मेरे विवाह की चिंता से वे बड़े दुखी हुए। संसार में कन्या के पिता को, वह भूतल पर इंद्र के ही तुल्य क्यों न हो, वर पक्ष के लोगों से, वे अपने समान या अपने से छोटी हैसियत के ही क्यों न हों, प्राय: अपमान उठाना पड़ता है।’ 

**नारायण सिंह

गुरुवार, 25 नवंबर 2021

शब्दो की आवाजाही

मौर्यों का जमाना था। भारत और यूनान के बीच आवाजाही थी। तब ग्रीक और प्राकृत शब्दों का मेलजोल भी था।

ग्रीक में एक शब्द " एंड्रो - दमस " ( Andro - Damas ) का प्रचलन है। एंड्रो - दमस में दो शब्दों का मेलजोल है। एंड्रो ग्रीक का और दमस प्राकृत का शब्द है। ग्रीक में एंड्रो का अर्थ पुरुष तथा प्राकृत में दमस का अर्थ जीतने वाला होता है। एंड्रो - दमस का अर्थ " जीतने वाला पुरुष " हुआ।

चंद्रगुप्त मौर्य को एंड्रो - कोट्टस ( Andro- Cottus ) क्यों कहा जाता है?

एंड्रो - कोट्टस में दो शब्दों का मेलजोल है। एंड्रो ग्रीक का और कोट्टस प्राकृत का शब्द है। ग्रीक में एंड्रो का अर्थ पुरुष तथा प्राकृत में कोट्टस का अर्थ किले वाला होता है। एंड्रो - कोट्टस का अर्थ " किले वाला पुरुष " हुआ।

चंद्रगुप्त मौर्य को यूनानियों ने " किला - पुरुष " यूँ ही नहीं कहा है। पाटलिपुत्र की किलेबंदी ऐसी कि पक्षी भी पर नहीं मार सके। किलेबंदी को देखकर मेगस्थनीज चकित थे।

मेगस्थनीज ने लिखा कि पाटलिपुत्र की किलेबंदी ऐसी कि नगर के चारों ओर मोटी लकड़ी की दीवार थी। दीवार के बीच - बीच में मोर्चे बने थे और चारों ओर 60 फीट गहरी एवं 600 फीट चौड़ी खाई थी। दीवार में 64 दरवाजे तथा 570 बुर्ज थे।

क्लियोपेट्रा








 

मंगलवार, 23 नवंबर 2021

आर्यो का घोड़ा

 आर्यों के घोड़े

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क्या सिंधु घाटी सभ्यता के लोग घोड़ों के बारे में जानते थे?


ऊपर से देखने पर यह बड़ा साधारण-सा सवाल मालूम होता है। इसके राजनैतिक आशयों से अपरिचित कोई भी व्यक्ति यही कह बैठेगा कि शायद हाँ या शायद ना लेकिन आख़िर इससे फ़र्क़ ही क्या पड़ता है? किंतु एक बहुत महत्वपूर्ण समीकरण इधर इससे जुड़ गया है। भारत में जाति का चिंतन सामुदायिक रूप से केंद्रीय महत्व का रहा है, किंतु जबसे जाति राजनीतिक पूँजी बनी है, सिंधु सभ्यता के घोड़ों का प्रश्न विस्फोटक सम्भावनाओं से भर गया है।


कारण यह कि सिंधु घाटी सभ्यता से प्राप्त होने वाली मुहरों, सीलों और शिल्प में कहीं भी अश्वों के दर्शन नहीं होते, जबकि उस सभ्यता ने वृषभों और महिषों का विपुल-चित्रण किया है। इसके समक्ष फिर ऋग्वेद की ऋचाएँ हैं, जो अश्वों के वर्णनों से भरी पड़ी हैं। वास्तव में घोड़ा वैदिक सभ्यता का महत्वपूर्ण पशु था, जबकि सिंधु सभ्यता में बैल और सांड़ अधिक लोकप्रिय थे, वहीं टोटेम के रूप में एकशृंगी (यूनिकॉर्न) को सर्वाधिक चित्रित किया जाता था। जिन लोगों की रुचि यह सिद्ध करने में है कि सिंधु घाटी सभ्यता के लोग वैदिक सभ्यता के लोगों से भिन्न थे, वो इसे विभेद के एक महत्वपूर्ण बिंदु की तरह प्रस्तुत करते हैं। इसमें आगे वो यह जोड़ देते हैं कि जब आर्य यूरेशिया या मध्येशिया से अपने घोड़ों या अश्व-जुते रथों पर सवार होकर आए तो उन्होंने अपनी गति, वेग और आक्रामकता से सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों को हतप्रभ कर दिया और उन्हें तितर-बितर हो जाने पर विवश कर दिया। यह आर्य-इन्वेशन थ्योरी कहलाती है। यह नई स्थापना नहीं है, किंतु इधर इसके ध्वजवाहक श्री टोनी जोसेफ़ बन गए हैं, जिन्होंने 'अर्ली इंडियंस' शीर्षक से एक पुस्तक लिखकर इस थ्योरी के पक्ष में नए डीएनए-आधारित तर्क दिए हैं।


दूसरी तरफ़ वे हैं, जो मानते हैं कि सिंधु घाटी सभ्यता के लोग ही आर्य या वैदिक थे, सिंधु घाटी और वैदिक सभ्यता के बीच कोई विभेद या अंतराल नहीं है और इतना ही नहीं, वास्तव में कालक्रम में वैदिक संस्कृति सिंधु सभ्यता से पहले ही अस्तित्व में आ चुकी थी। वो इस प्रश्न का सामना नहीं करना चाहते कि अगर ऐसा था तो बीसवीं सदी में मोहेंजोदारो व अन्य नगरों के उत्खनन से पहले तक सिंधु घाटी सभ्यता भारत की पौराणिक-स्मृति से पूरी तरह से विलुप्त क्यों थी? यह घोड़ों वाला तर्क भी उन्हें दुविधा में डालता है कि सिंधु सभ्यता के लोगों के पास से घोड़ों की कोई भी सूचना क्यों बरामद नहीं होती। यही कारण था कि जब उत्तरप्रदेश के बागपत ज़िले में गंगाघाटी के गांव सनौली से 4000 वर्ष पुराने तीन रथ उत्खनन में प्राप्त हुए तो हड़प्पा सभ्यता को आर्य-सभ्यता मानने वालों में हर्ष की लहर दौड़ गई। उनका यह मानना है कि सनौली सिंधु घाटी सभ्यता का पुरातात्विक केंद्र था और वहाँ से रथ का मिलना यह सिद्ध करता है कि हड़प्पा संस्कृति के लोग घोड़ों से सर्वथा अपरिचित नहीं थे। सनौली के रथ उन्हें विजयरथ सरीखे प्रतीत हुए हैं। आर्य-इन्वेशन थ्योरी के प्रतिपादकों ने अपने बचाव में इतना भर कहा है कि इन रथों के वाहक बैल भी हो सकते थे।


श्री भगवान सिंह ने अपनी पुस्तक 'हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य' में बलपूर्वक यह कहा है कि घोड़ा हड़प्पावासियों के लिए अपरिचित नहीं था। वैसा उन्होंने हड़प्पा सभ्यता के स्थलों से प्राप्त घोड़ों की अस्थियों के आधार पर कहा है। इसकी काट में टोनी जोसेफ़ ने 'अर्ली इंडियंस' में तर्क दिया है कि हड़प्पा के लोग जब मेसापोटामिया को हाथी, भैंसे, मोर का निर्यात करते थे तो बदले में कदाचित् उन्होंने घोड़ों का आयात भी किया होगा- किंतु घोड़े की जो केंद्रीय भूमिका वैदिक सभ्यता में है, उसका लेशमात्र भी हड़प्पा सभ्यता में नहीं है। टोनी जोसेफ़ के अनुसार भारत में पालतू घोड़ों की बहुतायत ईसा पूर्व 1900 के आसपास देखी जाती है, जो कि परवर्ती-हड़प्पा कालखण्ड है और वेद हड़प्पा काल के बाद रचे गए थे। उधर श्री भगवान सिंह एक रोचक स्थापना देते हैं। वे कहते हैं कि वैदिक जनों ने अश्व से पहले गर्दभ को पालतू बनाया था और आरम्भ में गर्दभ को ही अश्व कहा जाता था। अश्विनीकुमारों का वाहन इसीलिए गर्दभ है। गर्दभ के लिए अंग्रेज़ी का शब्द 'ऐस' भी 'अश्व' का अपभ्रंश उन्होंने माना है और प्रकारान्तर से जेंद भाषा के 'अस्प', लातीन के 'एकुअस', ग्रीक के 'इप्पोस' और अंग्रेज़ी के 'हॉर्स'- सभी की उत्पत्ति अश्व से ही स्वीकारी है। 'इन सर्च ऑफ़ द क्रैडल ऑफ़ सिविलाइज़ेशन' नामक एक अन्य पुस्तक- जो आर्य-इन्वेशन सिद्धांत का विरोध करती है- की लेखक-त्रयी फ्रॉले-फ़्यूरष्टाइन-काक ने कहा है कि अव्वल तो भारत में पुरा-पाषाण गुफाओं में घोड़े के भित्तिचित्र पाए गए हैं। दूसरे उन्होंने पूछा है कि भला कौन-सी यायावर जाति रथों पर सवार होकर किसी सभ्यता पर आक्रमण करती है? रथ तो नागरिक-सभ्यता का वाहन हैं, बंजारों की गाड़ी नहीं है। यानी प्राचीन भारतीय इतिहास में घोड़ों की भूमिका को लेकर यह एक बहुत ही मज़ेदार बहस चल रही है।


भारत में जाति का प्रश्न अब मनोवैज्ञानिक महत्व का बन गया है, क्योंकि जो भारत का मूलनिवासी होगा, उसी का देश के संसाधनों पर पहला अधिकार होगा- यह अनकही धारणा चुपचाप सामूहिक अवचेतन में रोप दी गई है। आर्य-द्रविड़ या सवर्ण-दलित द्वैत के मूल में भी अब वर्चस्व का युद्ध आ गया है। यही कारण है कि दलित-चिंतकों ने धोलावीरा को यूनेस्को द्वारा विश्व-धरोहर स्वीकारे जाने की व्याख्या द्रविड़ों की श्रेष्ठता के उद्‌घोष की तरह की है, क्योंकि वो सिंधु घाटी को अनार्य-सभ्यता की तरह देखते हैं। वहीं सवर्ण-गौरव के प्रवक्ताओं ने इसे वैदिक संस्कृति के सातत्य में देखते हुए गर्व से सीना फुलाया है। जो इस युद्ध से चकित किंतु तटस्थ या कदाचित् निर्लिप्त हैं- जैसे कि इन पंक्तियों का लेखक- वो नेपथ्य में खड़े होकर यह सब देख रहे हैं और मन ही मन सोच रहे हैं कि आज से चार या पाँच हज़ार साल पहले हमारे पुरखे कौन थे, और कहाँ से आए थे, उससे अब आख़िरकार हमारे जीवन पर क्या प्रभाव पड़ना है? हममें से बहुतेरों को तो यही नहीं पता कि आज से पाँच या छह पीढ़ी पहले या अठारहवीं या उन्नीसवीं सदी में हमारे पुरखे क्या कर रहे थे, किन लोगों से उनका मेल-मिलाप था, रक्त में कब-कहाँ-कैसे मिलावट हुई। यह रक्त की शुद्धता का विचार हमारे देश की बड़ी बुराइयों में से है कि चाहे जो हो जाए, रक्त की मिलावट नहीं होनी चाहिए और जातियों की यथास्थिति (जिसे अंतर्जातीय विवाह-सम्बंधों से चुनौती मिलती है) बनी रहनी चाहिए। 


जबकि अंतिम निष्कर्ष में तो आज समूची पृथ्वी की मनुष्य-जाति जिस सेपियंस-वर्ग से ताल्लुक़ रखती है, उनका उदय निर्विवाद रूप से पूर्वी-अफ्रीका में दो लाख साल पहले हुआ था। इससे तीनेक लाख साल पहले यूरोप और मध्येशिया में निएंडरथल्स विकसित हुए थे। आज जब भारत में आर्य-द्रविड़ का प्रश्न ज्वलंत बना हुआ है, तब संसार में सेपियंस-निएंडरथल-द्वैत चर्चाओं के दायरे में है- जो कि देखा जाए तो एक अधिक व्यापक-महत्व का प्रश्न है। इसकी निष्पत्ति यह है कि सेपियंस ने कोई 30 हज़ार साल पहले निएंडरथल्स का भले सर्वनाश कर दिया था, लेकिन इन दोनों जातियों के बीच क्रॉस-ब्रीडिंग हुई थी और आज भी दुनिया के ग़ैर-अफ्रीकी मनुष्यों में 1 से 4 प्रतिशत तक निएंडरथल-जीनोम पाए जाते हैं। यानी हममें से बहुतों के पैतृक या मातृकाएँ कदाचित् निएंडरथल रहे होंगे। लेकिन बात वही है कि इससे भी आज क्या फ़र्क़ पड़ता है। दुनिया तो आगे की तरफ़ देख रही है और होमो सेपियंस के बजाय होमो देअस की बात कर रही है। आने वाले सौ सालों में पृथ्वी पर मनुष्य-जाति का अस्तित्व रहेगा या नहीं और रहेगा तो किस रूप में- आज के समय का सबसे बड़ा प्रश्न तो यही है।


भारत के मूलनिवासी कौन थे- इस प्रश्न का अकादमिक महत्व अलबत्ता तब भी यथावत रहेगा- प्रबुद्ध जिज्ञासुजन इस बारे में सच्चाई जानना चाहेंगे। फ़र्क़ यही है कि सिंधु घाटी सभ्यता के वैदिक सिद्ध होने से वो ना गर्व से भर उठेंगे और ना ही उसके अनार्य सिद्ध होने से वे लज्जा से चेहरा लाल कर बैठेंगे या अपमानित महसूस करेंगे (जैसा कि राखीगढ़ी से प्राप्त एक कंकाल की डीएनए-जाँच से प्राप्त साक्ष्यों के द्वारा संकेत किया गया था कि उसमें द्रविड़-जीन्स की बहुलता है, बनिस्बत यूरेशियन-जीन्स के- इस पर इंडिया टुडे द्वारा एक आमुख कथा प्रस्तुत की गई थी)। वास्तव में, ना इसमें गौरव करने जैसा कुछ है, ना लज्जित होने जैसा कुछ है- क्योंकि सभ्यताओं की यात्राएँ मिश्रित-रक्त की यात्राएँ हैं, और किसी का भी ख़ून सौ फ़ीसद शुद्ध नहीं होता। कह लीजिये कि सभ्यताएँ गतिशील होती हैं- अश्वों की तरह!






ताज

ताज तेरे लिए इक मजहर-ए-उल्फत ही सही तुझको इस वादी-ए-रंगी से अक़ीदत ही सही मेरे महबूब कही और मिलाकर मुझसे। बज़्म-ए-शाही में ग़रीबो का गुजर क्या ...